सनातन धर्म में है महालया का विशेष महत्व
आसनसोल। शरत ऋतु के आगमन के साथ ही बंगाल की फिजाओं में मां दुर्गा के धरती पर आने के कई संकेत मिलने शुरु हो जाते हैं। काश फुल का खिलना मानसून के बाद बादलों का छंटकर आसमान का नीला हो जाना और लोगों के मन में बिना किसी कारण के ही आनंद का संचार होना यह कुछ संकेत हैं जिनसे लगता है कि एक साल के लंबे इंतजार के बाद मां आ रही हैं। सनातन धर्म की हर पौराणिक मान्यताओं के अनुसार मां दुर्गा के धरती पर आने का भी एक निश्चित दिन है। इसे महालया कहते हैं। माना जाता है कि इसी दिन मां दुर्गा धरती पर अपने 9 दिनों के प्रवास पर आती हैं जिनको हम नवरात्र के रुप में मनाते हैं । यही वजह कि इसी दिन मां दुर्गा की प्रतिमा बनाने वाले शिल्पकार मां दुर्गा की प्रतिमा में चक्षुदान करते हैं। एक और मान्यता के अनुसार राक्षस महिषासुर से लड़ने के लिए भगवान ब्रह्मा विष्णु और महेश के शरीर के शरीर से एक तेज उत्पन्न हुआ था जिससे मां दुर्गा का सृजन हुआ। देवताओं को परास्त करने वाले महिषासुर का मां दुर्गा ने 9 दिनों तक चले भयंकर युद्ध के बाद दमन किया। महालया के दिन ही पितृपक्ष का समापन और देवीपक्ष का आरंभ होता है। इस दिन लोग नदी या अन्य जलाशयों पर जाकर अपने पितरों को जल अर्पण करते हैं जिसे तर्पण कहा जाता है। सनातन धर्म के अनुसार ऐसा करने से हमारे दिवंगत पितरों की आत्मा को शांति मिलती है। इसके साथ ही पितरों की पसंद का भोजन बनाया जाता है जिसका पहला अंश गौ माता को दुसरा अंश देवताओं को तीसरा भाग कौवों को चौथा अंश कुत्ते को और पांचवा चींटियों को दिया जाता है । दरअसल सनातन धर्म में हर एक उत्सव और इससे जुड़े हर एक क्रिया का कोई न कोई महत्व है । महालया भी इसका अपवाद नहीं है। महालया के दिन एक तरफ जहां हम मां दुर्गा का धरती पर स्वागत करते हैं वहीं अपने पितरों को जल अर्पण कर उनका वंशज होना का ऋण चुकाते हैं।