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क्रिसमस पर सांता के बहाने हमें पुनर्विचार की जरूरत – सुरेन जालान

आसनसोल । हिंदुओ में भी सांता क्लोज होते हैं वह भी आज से नहीं सदियों से और वह भी हर घर में हां अंतर इतना है कि हमारे सांता क्लोज कोई काल्पनिक पात्र नहीं होते, बल्कि जीते जागते इंसान होते हैं।हालांकि अब इन देशी सांता क्लोज की संख्या कम होने लगी है। हम बात कर रहे हैं पहले हर घर में पाए जाने वाले दादा-दादी, नाना-नानी जैसे बुजुर्गों की। कुछ समय पहले तक अधिकांश परिवार संयुक्त परिवार होते थे और इनमें बच्चों के लिए दादा-दादी नाना नानी जैसे बुजुर्ग सच में किसी सांता से कम नहीं होते थे। उक्त बाते आसनसोल के व्यवसायी सुरेन जालान ने कही। उन्होंने कहा कि बच्चे जब भी उनके पास पहुंचते हैं। सांता की तरह उनकी जेब से भी उनके लिए कुछ ना कुछ निकल ही आता था। कभी टाॅफी, कभी चॉकलेट, कभी फल कभी कुछ खाने पीने के लिए पैसे बच्चों को तो यही सब चाहिए। इससे ज्यादा की इच्छा उनकी होती भी नहीं। जब छुट्टियां मनाने बच्चे अपने नाना नानी के घर जाते तो पकवानों के मामले में तो मानो उनकी लॉटरी ही लग जाती थी। मुंह से फरमाइश निकली नहीं की शाम तक वही पकवान उनके सामने हाजिर और जब वापस लौटते तो उनके लिए खिलौने कपड़े आदि उपहार के रूप में मिलते ही थे। उन्होंने कहा कि साथ ही कुछ पॉकेट मनी भी चुपके से नाना नानी थमा ही देते थे। इन सांता क्लोज से उपहार पाने के लिए न किसी तामजम की जरूरत होती थी न ही किसी खास दिन का इंतजार करने की जरूरत है। उनके पास तो जब पहुंचे तभी उपहार मिल ही जाते हैं । सुरेन जालान ने कहा कि अब क्योंकि शहरों में एकल परिवार अधिक है और संयुक्त परिवार की अवधारणा ही धीरे-धीरे खत्म होती जा रही है। इसलिए इस क्रिसमस पर सांता के बहाने हमें पुनर्विचार की जरूरत है। अपने वाले सांता जो सदा नि:स्वार्थ लाड प्यार उडेलते रहते थे। हम अपने बच्चों को उनसे दूर करके कहीं बड़ी गलती तो नहीं कर रहे?

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