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आसनसोल मंडल ने “आजादी का अमृत महोत्सव” के एक भाग के रूप में स्वामी विवेकानंद के जन्मसती का आयोजन किया

आसनसोल । भारतीय स्वतंत्रता के 75 वें वर्ष के संस्मरण में “आजादी का अमृत महोत्सव” के एक भाग के रूप में पूर्व रेलवे ने मंडल रेल प्रबंधक पूर्व रेलवे आसनसोल मंडल कार्यालय के फेयर में बुधवार को विख्यात दार्शनिक तथा आध्यात्मिक नेता “स्वामी विवेकानंद” के जन्मशती समारोह का आयोजन किया। परमानंद शर्मा, मंडल रेल प्रबंधक/आसनसोल, एम.के. मीना, एडीआरएम-1 के साथ ही आसनसोल मंडल के शाखा अधिकारियों एवं कर्मचारियों ने स्वामी विवेकानंद की तस्वीर पर पुष्प अर्पित कर श्रद्धांजलि दिया। स्वामी विवेकानंद (नरेंद्र दत्त) का जन्म 12 जनवरी 1863 को कोलकाता, बंगाल प्रेसिडेंसी ,ब्रिटिश इंडिया में हुआ था। वे हिंदू आध्यात्मिक नेता तथा सुधारक थे जिन्होंने भारतीय आध्यात्मिकता को पश्चिमी भौतिक प्रगति के साथ जोड़ने का प्रयास यह सुनिश्चित करते हुए किया कि दोनों एक दूसरे के पूरक और प्रशंसक हैं। इनका अध्ययन एक पाश्चात्य किस्म के विश्वविद्यालय में हुआ जहां

इन्होंने पाश्चात्य , ईसाइयत तथा विज्ञान को समझा। सामाजिक सुधार, स्वामी विवेकानंद के विचारों में मुख्य तत्व था जिसके कारण उन्होंने ब्रह्म समाज के साथ अपने को जोड़ा जो बाल विवाह तथा अशिक्षा जैसी कुरीतियों के उन्मूलन तथा महिलाओं एवं निम्न जातियों के मध्य शिक्षा का बढ़ावा देने के प्रति समर्पित थी। कालांतर में वे रामकृष्ण के परम प्रिय शिष्य बने। वे संयुक्त राष्ट्र तथा इंग्लैंड में वेदांत दर्शन के प्रचार अभियान के उत्प्रेरक शक्ति थें। वर्ष 1893 मैं शिकागो के विश्व धार्मिक संसद में वे हिंदुत्व के प्रवक्ता थें तथा उन्होंने एसेंबली को इस तरह से आकर्षित किया की एक समाचार पत्र ने उन्हें “दैवीय शक्ति प्रदत्त वक्ता तथा संसद का एक महानतम व्यक्तित्व” के रूप में व्याख्यायित किया। इसके पश्चात संयुक्त राष्ट्र एवं इंग्लैंड के चारों तरफ वेदांत आंदोलनों में धर्मान्तरित करने हेतु अपना व्याख्यान प्रस्तुत किया। 1897 में अपने कुछ पाश्चात्य अनुयायियों के साथ भारत लौटने पर विवेकानंद ने कलकत्ता के नजदीक बेलूर मठ में रामकृष्ण मिशन का स्थापना किया। आत्म सुधार एवं सेवा उनका आदर्श था। युवाओं के लिए उनका संदेश था, ” मैं जो चाहता हूं वह यह है कि लोहे की मांसपेशियां और स्टील की नसें हो, जिसके अंदर उसी सामग्री का दिमाग रहता है जिससे वज्र बनाया जाता है।” अपने इसी संदेश से वह युवाओं में बुनियादी मूल्यों को संचालित करने की कामना रखते थें। उनका निधन 04 जुलाई, 1902 को कोलकाता के बेलूर मठ में हुआ।

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